डाॅ. राम मनोहर लोहिया की 51वीं पुण्यतिथि पर विशेष

आज डाॅ0 राममनोहर लोहिया की 51वीं पुण्यतिथि है, वे 12 अक्टूबर 1967 को इस दुनिया को अलविदा कह गये और साथ ही अपने कदमों के निशान छोड़ गए। वे चिंतन की ऐसी लकीर छोड़ गए, जो आज हमारे लिए महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ अनुकरणीय भी है। उनके द्वारा उठाए गये अनेकों सवाल अनुत्तरित रह गये। उनके सपने अधूरे रह गये।

डाॅ0 लोहिया हमारे सामने कई किरदारों में उपस्थित होते हैं। वे अप्रतिम प्रतिभा के विभूति, महान चिंतक, बड़े राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक हैं। कुल मिलाकर डाॅ0 लोहिया अग्रिम पंक्ति में खड़े क्रांतिधर्मी सत्याग्रही प्रतीत होते हैं। डाॅ0 लोहिया ने एक दार्शनिक के रूप में सभी विषयों पर गहन अध्ययन कर समग्र विचार रखा।

बीसवीं सदी के पांचवें दशक में नदियों की सफाई, हिमालय बचाओ, छोटी मशीन की तकनीक, विश्व सरकार की अवधारणा, शोषण और विषमता के 7 कारणों को दूर करने के लिए डाॅ0 लोहिया ने सप्तक्रांति का नारा दिया था। जिसके कारण वे लोकप्रिय जननायक बन जाते हैं।

जिसका उल्लेख राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त करते हैं – ‘‘एक ही तो वीर रहा सीना तान है, लोहिया महान है।’’ डाॅ0 लोहिया गोवा के लोकगीतों के भी नायक बन जाते हैं – ‘‘आग्वादच्या शिवा, तुमे आमका हांडली जाग, पहिली माझी ओवी, पहिले माझी फूल, भक्ती ने अर्पिन लोहिया ना’’ जैसे लोकगीत आजादी के योद्धा डा0 लोहिया के लिए आज भी गाए जाते हैं।

आज जलवायु परिवर्तन विश्व समुदाय के सामने एक वैश्विक चुनौती है। जो दिनों-दिन और गहराती जा रही है। तेजी से परिवर्तित होे रहे जलवायु चक्र ने हिमालय को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। अफगानिस्तान के हिंदुकुश से लेकर कैलाश मानसरोवर होते हुए नेफा के भारतीय अन्तिम छोर तक फैला हुआ हिमालय विश्व की सबसे नई और बड़ी पर्वतमाला है। जिसका विस्तार अनवरत जारी है।

इस पर मंडराने वाला घोर खतरा भारत के साथ-साथ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, चीन, बांग्लादेश, म्यांमार के अलावा अन्य पड़ोसी देशों के सामने विकट संकट खड़ा कर सकता है। जब हम इन समस्याओं के बारे में सोचते हैं, तो दशकों पहले महान समाजवादी चिंतक राम मनोहर लोहिया के लिखे या कहे बहुत सारे शब्द हमारे कानों में गूजने लगते हैं। वह लोहिया ही थे, जिन्होंने पचास-साठ के दशक में पहली बार ‘हिमालय बचाओ’ का नारा दिया।

यह वहीं वक्त था जब चीन ने तिब्बत में अपनी पैठ जमा लिया। भारत-चीन युद्ध हो चुका था। अतः स्वाभाविक था कि उस समय के ‘हिमालय बचाओ’ अभियान के उद्देश्य मुख्यतया सामरिक व सांस्कृतिक थे। इसकी कार्यनीति में पड़ोसी हिमालयी देशों के बीच आपसी विश्वास व मेलजोल बनाना भी था। डाॅ0 लोहिया इस विचार के प्रवर्तकों में से एक थे।

डाॅ0 लोहिया ने ‘हिमालय बचाओ’ विषय पर 1950 के बाद से अनेक लेखे जिनका संकलन और संपादन समाजवादी विद्वान श्री मस्त राम कपूर ने किया। इसकी प्रस्तावना डाॅ0 राम मनोहर लोहिया ने 4 अक्टूबर 1963 को लिखी। इसका प्रथम संस्करण वर्ष 2008 में प्रकाशित हुआ। 464 पृष्ठों की इस पुस्तक में ‘हिमालय बचाओ’ के सभी पहलुओ पर विशद रूप से विचार लिपिबद्ध हुयें हैं। आज के परिप्रेक्ष में उन का पुनःमूल्यांकन हो सकता है। यह दस्तावेज ‘हिमालय बचाओ’ अभियान को एक विहंगम, तथ्यपरक और स्पष्ट अवधारणों के निरूपण में साहयक हो सकता है।

काॅकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक माउंट एवरेस्ट (सागरमाथा) की अगुआई में फैली विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षो के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान-पतन की गवाह रही है। इसी हिमालय के विशाल प्रांगण में अनेक सभ्यताएं, संस्कृतियाँ और मानव नस्लों का उद्भव और विकास हुआ। डाॅ0 लोहिया ने 1949 में ‘हिमालय बचाओ’ नीति का प्रस्ताव प्रस्तुत किया। डाॅ0 लोहिया लिखते हैं कि ‘‘हिमालय नहीं रहेगा तो, देश नहीं रहेगा, इस प्रकार हिमालय बचाओ! देश बचाओ! केवल नारा नहीं है, यह भावी विकास नीतियों को दिशाहीन होने से बचाने का भी एक रास्ता है।’’

हुकुमदेव नारायण यादव ‘संसद में गांव, गरीब, किसान की बात’ (पृ0-222) में लिखते हैं कि ‘‘डाॅ. लोहिया हिमालय बचाओ आन्दोलन करते थे। जब हम समाजवादी आन्दोलन में थे और जिस समय तिब्बत की घटना घटी थी उस समय डाॅ. लोहिया सारे देश में एक आन्दोलन चलाये थे उसका नाम ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ था।

डाॅ. लोहिया ने कहा था कि हिमालय भारत की प्रहरी नहीं है, बल्कि जब तक मुझमें ताकत रहती है और हम हिमालय की रक्षा करते रहते हैं तो हिमालय भी भारत की रक्षा करने में सक्षम रहता है। अगर हम हिमालय की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं तो हिमालय भी भारत की प्रहरी नहीं है।

आज भी हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा भारत के हिस्से से निकलकर दूसरे के कब्जे में है। एक लाख 18 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन उसी क्षेत्र के अंदर जो वर्ष 1947 को भारत के नक्शे में था, वह जमीन आज भारत के नक्शे में नहीं है। यह मैं नहीं कहता हूँ बल्कि यूनेस्को द्वारा प्रकाशित ईयर बुक में है, अगर 1952 और 1962 की किताब निकाल कर देखें तो भारत के क्षेत्रफल का अंतर दिखाई दे जाएगा।’’ वे कहते थे कि भारत की संस्कृति और दर्शन का जो उद्गम स्थान हिमालय रहा है और हिमालय से निकलने वाली नदियां रही हैं, हमारे तो सारे धर्मग्रंथो का निर्माण ही नदियों के किनारे हुआ है या पहाड़ो की कंद्राओं में हुआ है। अतः उसको बचाने की हमारी केवल सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं वरन नैतिक व धार्मिक दायित्व भी है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 अटल बिहारी बाजपेई भी डाॅ0 लोहिया के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। अटल जी ने अपने लेख ‘अनूठे व महान थे डाॅ. राममनोहर लोहिया’ में लिखते हैं कि ‘डाॅ. लोहिया ने तीर्थस्थलों की रक्षा, भारत की नदियों की स्वच्छता और इन सबको जोड़ने की बात कही। वे ‘हिमालय बचाओ’ पर विशेष बल देते थें तथा एवरेस्ट को ‘सागर-माथा’ कहते थे। …..डाॅ0 लोहिया हिमालय के प्रति संवेदनशील थे, इसलिए हिमालय बचाओ सम्मेलन का भी आयोजन करवाते थे और वह पड़ोसी देशों के प्रति भी उतने ही संवेदनशील थे।’’ डाॅ0 लोहिया के ही विचारों से प्रभावित होकर अटल जी भी नदियों को आपस में जोड़ने की बात करते थे।

डाॅ0 लोहिया देश के सर्वांगिण विकास व ‘हिमालय बचाने’ के लिए विदेश नीति को मजबूत करने की वकालत करते थे। 25 मई 1948 को दिल्ली के कनाट प्लेस की आम सभा में डाॅ. लोहिया ने भारत की विदेश नीति की कड़ी आलोचना की। समाजवादियों ने जुलूस निकाला। उन पर लाठीचार्ज हुआ। पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े। उसी रात डाॅ0 लोहिया को कैद कर दिया गया। यह लोहिया के जीवन की यह पाँचवी जेल यात्रा थी। जबकि आजाद भारत में डाॅ0 लोहिया की यह पहली गिरफ्तारी थी। यह मुकदमा लगभग दस-बारह दिनों तक चला। लम्बी बहस के बाद डाॅ0 लोहिया और उनके साथियों को छोड़ दिया गया।

उन्होंने उसी समय सरकार को चेतावनी दी कि देश की सीमा की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दे। विदेश नीति को सुदृढ़ बनाये। इसके लिए उन्होंने ‘हिमालय नीति’ की स्थापना की। इसके पीछे उनका उद्देश्य था कि देश की जनता में अपनी सीमाओं और पड़ोसी देशों के साथ-साथ पर्यावरण प्रति जागरूकता पैदा हो। सिक्किम, नेपाल, भूटान और तिब्बत अपने को भारत से अलग न महसूस करे। इसके लिए उन्होंने 22-23 दिसम्बर 1950 को लखनऊ में ‘हिमालय बचाओ’ सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें पख्तून, जिरगये हिन्दी की ओर से अकबर खाँ कुमायूँ, तिब्बत से दुर्गा सिंह रावत और नेपाल से मातृका प्रसाद कोइराला प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित थे।

डाॅ0 लोहिया का विचार था कि यदि हिमालय बचा रहेगा तभी नदियां भी बची रहेंगी। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनन्दा मिलकर गंगा कहलाती हैै। इसमें आगे सत्यनारायण के पास चन्द्रभागा नदी, हरिद्वार से पहले सुसवा, कन्नौज में रामगंगा मिलती है। रामगंगा की सहायक नदी काली व ढेला नदी है। गंगा में कानपुर से पाण्डु, इलाहाबाद में यमुना तथा सरस्वती का संगम है। इलाहाबाद (प्रयाग) में गंगा से मिलने वाली यमुना की सहायक नदियाँ रूपिन, सुपिन, गिरी, टौंस, पाबर, गम्भीर, सेसा, खेर, पार्वती, असान, हिण्डन, चम्बल, बनास, बर्क, क्षिप्रा, खानकली, सिन्ध, बेतवा विभिन्न स्थानों पर मिलती है।

प्रयाग के आगे गंगा में वरुणा, असि, बसुदी, गोमती मिलती है। इसकी सहायक नदियाँ जोकनई, कटना, झमका, सकरिया, सरयन, सड़ा, घई, पीली मयूरी, तम्बरा, सई आदि है। बलिया के पास गंगा में बिसान, गंगी, कर्मनाशा आदि नदियाँ मिलती है। बिहार में गंगा की धारा में घाघरा जिसकी सहायक नदी शारदा, गौरी, बौनसाई, टोंस, देबहा आदि मिलती है। गण्डक (त्रिशुली नदी) सोन नदी (रिहन्द, पुनपुन, मोरहन, दूधवा) फल्गु (लीलाजन, मोहना) कोशी (दूधकाशी, भूतकोशी, अरुण, तमर, सप्तकोशी, इन्द्रावती, सोनकोशी, बागमती, कमला, बलान) मिलती है।

फरक्का से आगे पश्चिम बंगाल में उत्तर की तरफ से महनन्दा तथा पश्चिम से हुगली जिसमें दामोदर व रूपनारायण शामिल होती है। बांग्लादेश में ग्वालन्दों घाट के निकट गंगा में विशाल ब्रह्मपुत्र नदी मिलता है। गंगा और ब्रह्मपुत्र की संयुक्त धारा पद्मा कहलाती है जो चैधंपुर के निकट मेघना में शामिल होती है। इसके बाद बंगाल की खाड़ी में समाहित होती है। बाहर से यही देखने को मिलता है कि गंगा की धारा गंगासागर में समुद्र से मिलकर खत्म हो जाती है। लेकिन वास्तविकता यह है कि बंगाल की खाड़ी में 70 मील तक पानी के अन्दर भी रेत की पूँछ के रूप में गंगा ने अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं।

इतना ही नहीं गंगा द्वारा छोड़ी गई मिट्टी और रेत के कारण लगभग 400 मील तक हिन्द महासागर का पानी सफेद दिखाई देता है। डाॅ0 लोहिया ने सबसे पहले नदियों के माध्यम से भविष्य में पानी की भयावह स्थिति की तरफ ध्यान खींचा और यह भी कहा कि नदियों का संरक्षण व सफाई एक अभियान होना चाहिए। वर्तमान की केन्द्र सरकार भी गंगा की चिंता और उसकी मुक्ति का प्रयास कर रही है।

पिछले एक-डेढ़ दशक में रियो से शुरू होकर पेरिस तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुईं जिनमें दक्षिण एशिया की सरकारों के नुमाइंदों ने भी शिरकत की। 4 साल पहले डरबन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहरी चिंताएं उभरकर सामने आई थीं, लेकिन उस सम्मेलन में भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा जा सका। जिन समस्याओं की बात डाॅ0 लोहिया करते थे।

यदि हम इसका विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है कि हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है, जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है। हिमालय एशिया का वाटर-टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है, लिहाजा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकता है।

दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए, जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की जरूरत है। हिमालय (पहाड़ो और पर्यावरण) को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोकचेतना अभियान की। हालांकि संदर्भ और परिपे्रक्ष्य बदल चुके हैं लेकिन उसमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्र तो मिल ही सकते हैं?

लेखक परिचय:

डाॅ0 अमित कुशवाहा

असि0 प्रोफेसर (हिन्दी), धीरेन्द्र महिला पी0जी0 कालेज, वाराणसी

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