बड़ी-बड़ी कंपनियों की भी हालत खराब है. सब सरकार से पैकेज की आस लगाए बैठे हैं. यह हाल तो अभी का है. महामारी कुछ महीने और चली तो जो व्यवस्थाएं पूरी तरह पूंजीवादी हैं, वहां अराजक स्थिति हो सकती है. इसलिए दुनिया भर में इस पर शोध हो रहे हैं कि असर कितना होगा और दुनिया का सत्ता समीकरण किस हद तक परिवर्तित होगा. इसी सच्चाई को केंद्र में रख कर मैंने मीडिया पर यह सीरीज लिखने का फैसला लिया है. इसका मकसद जहां तक संभव हो सके सभी तथ्यों को एक जगह पर रखना है.ताकि जिसे ठीक लगे वो भविष्य में उनका इस्तेमाल कर सके.
विश्व में मीडिया के दो मॉडल मौजूद हैं. सरकारी मीडिया और निजी क्षेत्र का मीडिया यानी स्वतंत्र मीडिया. कुछ दिन पहले मीडिया मोनेटाइजेशन पर हुए एक सेमीनार में किसी ने पूछा कि दूरदर्शन को कैसे मोनेटाइज किया जाए यानी ऐसा बना दिया जाए जिससे दूरदर्शन मुनाफा कमाने लगे?
मैंने कहा कि दूरदर्शन को मोनेटाइज नहीं करना चाहिए. दूरदर्शन को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए और उसके आर्थिक हितों का ख्याल सरकार को रखना चाहिए. हम सभी अपने श्रम से अर्जित धन का ज्यादातर हिस्सा बुनियादी जरूरतों पर खर्च करते हैं. सरकार से संदर्भ में भी यह बात लागू होती है. उसे तो टैक्स से होने वाली आमदनी को जनता और शासन की जरूरतों पर ही खर्च करना चाहिए.
संवाद तंत्र, सूचना तंत्र किसी भी शासन तंत्र की एक बुनियादी जरूरत है. मोनेटाइज करने के लिए, मुनाफा कमाने के लिए या फिर स्वतंत्र संचालन योग्य पूंजी अर्जित करने के लिए सरकारी मीडिया को भी बाजार की शर्तों का पालन करना होगा. जब बाजार की शर्तों का पालन होगा तो सरकार और समाज के प्रति जिम्मेदारियों से समझौता करना पड़ेगा. ऐसा करने से उसका चरित्र बदल जाएगा. चरित्र बदलने का अर्थ है कि उसका औचित्य खत्म हो जाएगा. उसकी सार्थकता खत्म हो जाएगी. जब चरित्र बदल जाए और सार्थकता खत्म हो जाए तो फिर होने या नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता.
कोई भी सरकार अपना मीडिया तंत्र एक खास मकसद से विकसित करती है. यह सरकार के लिए जनता तक पहुंचने का महज जरिया मात्र नहीं है. यह सरकार का प्रोपैगेंडा तंत्र भी है. इसे समझने के लिए आपको मौजूदा समय पर गौर करना होगा. दूरदर्शन पर रामायण, रामायण उत्तरकथा, महाभारत, चाणक्य, हमलोग जैसे सीरियल यूं ही नहीं दिखाए जा रहे हैं. यह सरकारी प्रोपैगेंडा है.
सरकार अपने मीडिया के जरिए अपनी जरूरत के मुताबिक जनता का मानस तैयार करती है. यही नहीं इसके माध्यम के यह अपने लोगों को संरक्षण देती है. उन्हें वो जमीन मुहैया कराती है जिससे वो उसके पक्ष में लड़ सकें. और जब तक सरकार का यह मकसद पूरा होता रहेगा, सरकारी मीडिया पर बहुत असर नहीं पड़ेगा. वहां तैनात लोग थोड़े-बहुत एडजस्टमेंट यानी समायोजन के बाद अपना काम करते रहेंगे.
इसके उलट निजी क्षेत्र में मूल-चूल परिवर्तन होगा. लाखों लोग अभी ही बेरोजगार हो चुके हैं. लाखों और बेरोजगार होंगे. जब यह महामारी खत्म होगी तो हम देखेंगे कि बहुतेरे मीडिया संस्थान बंद हो चुके हैं. और जो बचेंगे उनकी भी कमर टूट चुकी होगी. इस समय सबसे खराब स्थिति पारंपरिक मीडिया संस्थानों की है. वहां हाहाकार मचा है. बीते डेढ़ महीने से सिनेमा सेक्टर में काम ठप है. फिल्म प्रोडक्शन बंद है. इवेंट्स बंद हैं. आउटडोर मीडिया का बाजार ठप्प पड़ा है. होर्डिंग, बैनर को कोई पूछ नहीं रहा.
अखबारों की छपाई न के बराबर हो रही है. मीडियाकर्मी जान जोखिम में डालकर लोगों तक खबर पहुंचाने में जुटे हैं, लेकिन उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है. वो हर तरफ से मार झेल रहे हैं. जान भी संकट में है और आर्थिक तौर पर भी कमजोर हो रहे हैं. सच कहें तो खबरों के बाजार से जुड़े मीडियाकर्मियों के लिए तो यह एक डरावने सपने जैसा है और यह सपना अभी शुरू ही हुआ है.
दूसरी तरफ न्यूज चैनलों के दर्शकों की संख्या बढ़ गई है. आजतक जैसे चैनल 33 करोड़ दर्शक बटोरने का दावा कर रहे हैं. कॉमस्कोर डेटा के मुताबिक डिजिटल मीडिया पर अब 60 प्रतिशत ज्यादा दर्शक हैं. ये नंबर उत्साहित करने वाले हैं. हर कोई टीवी देख रहा है. मोबाइल स्क्रीन से चिपका हुआ है. ऑनलाइन गेम खेल रहा है. ओटीटी प्लैफॉर्म्स पर फिल्म या फिर सीरियल देख रहा है. खबर पढ़ रहा है.
मतलब टीवी और ऑनलाइन माध्यमों पर हम सभी ज्यादा से ज्यादा समय बिता रहे हैं. सामान्य समय होता तो विज्ञापन बाजार के जुड़े लोगों के लिए इससे अधिक सुखद स्थिति कोई और नहीं हो सकती थी. लेकिन यह आपातकाल है. इतना दर्शक बटोरने के बाद भी रेवेन्यू गिर गया है. यह गिरावट मामूली नहीं है. 40-50 प्रतिशत तक गिरावट दर्ज की गई है.
ऐसा क्यों हुआ है – ये समझने के लिए आपको कोरोना वायरस की वजह से अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को देखना होगा. दुनिया की तमाम रेटिंग और फंडिंग एजेंसियों ने जो आंकड़े दिए हैं उनके मुताबिक कोरोना वायरस की वजह से इस साल भारत की अर्थव्यवस्था विकास दर 0.8 प्रतिशत तक गिर सकती है. साल की शुरुआत में आरबीआई ने 2020-21 वित्तीय वर्ष में 6 प्रतिशत विकास दर का अनुमान लगाया था, उसने बीते महीने इसे घटा कर 5.5 प्रतिशत कर दिया था.
आईएमएफ ने 5.8 प्रतिशत विकास दर का अनुमान घटा कर 1.9 प्रतिशत, विश्व बैंक ने 5 से 1.5 प्रतिशत, मूडी ने 5.4 से 2.5 और फिंच ने 5.6 से 0.8 प्रतिशत कर दिया है. 6 प्रतिशत ग्रोथ रेट की तुलना में 0.8 प्रतिशत विकास दर का अनुमान डराता है. असली तस्वीर तीसरे क्वार्टर में उभरेगी. अगर यह लॉकडाउन मई के आखिर तक चला तो इस साल ग्रोथ निगेटिव हो सकती है. कुछ जानकारों के मुताबिक अगर सर्दियों में भी कोरोना वायरस का कहर जारी रहा तो 8-10 प्रतिशत निगेटिव ग्रोथ की आशंका है.
रोजगार के लिहाज से यह एक खतरनाक स्थिति है. आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल 1.2 करोड़ श्रमिक तैयार हो रहे हैं. जबकि सिर्फ 55 लाख रोजगार सृजन हो रहा है. यही नहीं शोध के मुताबिक भारतीय संदर्भ में 5 प्रतिशत ग्रोथ रेट के लिए अतिरिक्त वर्क फोर्स की जरूरत नहीं होती है. मतलब उससे कम ग्रोथ रहने पर रोजगार सृजन नहीं होता है.
निगेटिव ग्रोथ का मतलब है कि इस साल जो वर्क फोर्स तैयार होगी, उसमें से चुनिंदा खुशकिस्मत लोगों को छोड़ दिया जाए तो बाकी को काम नहीं मिलेगा और पिछले साल जितनी संख्या में लोग काम कर रहे थे, उस संख्या में भी गिरावट आ जाएगी. मतलब करोड़ों लोग बेरोजगार होंगे. इसके नतीजे बहुत बुरे होंगे. सामाजिक अस्थिरता बढ़ेगी. अपराध बढ़ेगा. तनाव बढ़ेगा तो मौत के आंकड़े बढ़ेंगे. मतलब नुकसान चौतरफा होगा. मीडिया इंडस्ट्री के लिए तो मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.

साभार: ललित शर्मा की फेसबुक वॉल से

 

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