देश में जहां जातिगत जनगणना को लेकर बहस छिड़ी हुई है, वहीं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में साफ कर दिया है कि वह जातीय जनगणना नहीं करवाएगी। ऐसे में खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में ओबीसी को लेकर राजनीति करने वाले दलों द्वारा लगातार की जा रही इस मांग के बीच सवाल उठता है कि आखिर जातीय जनगणना की जरूरत क्यों हैं? इसे समझने के लिए देश में ओबीसी और बाकी जातियों की संख्या और उनकी हालत पर गौर करना जरूरी है।

44.4% ओबीसी: देश के 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 44.4 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। जो कि तमिलनाडु, बिहार, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक और छत्तीसगढ़, जैसे सात राज्यों से हैं। वहीं राजनीतिक भागीदारी की बात करें तो इन राज्यों से कुल मिलाकर 235 लोकसभा सदस्य संसद पहुंचते हैं।

ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और उनकी स्थिति के आंकलन को लेकर सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा किए गए सर्वेक्षण के जरिए इस महीने की शुरुआत में जारी किए आंकड़ों से पता चलता है कि अनुमानित 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में 44.4 फीसद ओबीसी, 21.6% अनुसूचित जाति (एससी), 12.3% अनुसूचित जनजाति (एसटी) और 21.7 फीसदी अन्य समूहों से हैं। वहीं कुल ग्रामीण परिवारों में से 9.3 करोड़ या 54% कृषि परिवार हैं।

ग्रामीण क्षेत्र में ओबीसी परिवारों का उच्चतम अनुपात तमिलनाडु (67.7%) में है और सबसे कम नागालैंड (0.2%) में है। तमिलनाडु के अलावा बाकी के छह राज्यों में स्थिति कुछ इस प्रकार है- बिहार (58.1%), तेलंगाना (57.4%), उत्तर प्रदेश (56.3%), केरल (55.2%), कर्नाटक (51.6%), छत्तीसगढ़ (51.4%)। ओबीसी की इस आबादी के साथ इन राज्यों राजनीतिक भागीदारी भी काफी दमदार है। क्योंकि 543 सदस्यीय लोकसभा में यहां से 235 सदस्य चुने जाते हैं।

इसके अलावा, 44.4% के राष्ट्रीय आंकड़ें की तुलना में चार राज्यों – राजस्थान (46.8%), आंध्र प्रदेश (45.8%), गुजरात (45.4%) और सिक्किम (45%) में ग्रामीण ओबीसी परिवारों की हिस्सेदारी अधिक है। कुल मिलाकर, राष्ट्रीय औसत की तुलना में अन्य 17 राज्यों – मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओडिशा, हरियाणा, असम, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड ग्रामीण ओबीसी परिवारों की संख्या कम है।

सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि अनुमानित 9.3 करोड़ कृषि परिवारों में से 45.8% ओबीसी हैं। इसके अलावा 15.9% अनुसूचित जाति, 14.2% अनुसूचित जनजाति और 24.1% अन्य समूहों से हैं।

सर्वेक्षण से प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय का जो डेटा सामने आया है उसके मुताबिक कृषि वर्ष 2018-19 के दौरान एक किसान परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये थी, जबकि ओबीसी कृषि परिवारों (9,977 रुपये), अनुसूचित जाति परिवारों (8,142 रुपये), एसटी परिवारों (8,979 रुपये) के हिसाब से कम थी। हालांकि, ‘अन्य सामाजिक समूहों’ के कृषि परिवारों ने औसत मासिक आय 12,806 रुपये दर्ज की। राज्यों के हिसाब से ओबीसी श्रेणी में प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय कृषि वर्ष 2018-19 के दौरान 5,009 रुपये और 22,384 रुपये के बीच थी।

जातीय जनगणना कराने के पीछे का तर्क: जातीय जनगणना की मांग करने वाले दलों का कहना है कि आबादी के हिसाब से अधिक संख्या होने के बाद भी राजनीतिक प्रतिनिधित्व में इनकी भागीदारी उतनी नहीं है। एक बार संख्या का पता चले तो उसके आधार पर उनकी भागीदारी भी बढ़ेगी। हालांकि जातीय जनगणना के पीछे एक तर्क यह भी है कि, संख्या का सही अनुमान लगने पर पिछड़ी जातियों के विकास को लेकर सही दिशा में सटीक योजनाएं बन सकेंगी।

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