“कानून झुका न्याय के आगे”: सुप्रीम कोर्ट ने प्रेम संबंध के मामले में पॉक्सो आरोपी को किया बरी
नई दिल्ली | सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो अधिनियम (POCSO Act) के तहत 10 साल की सजा काट रहे एक व्यक्ति को अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करते हुए बरी कर दिया है।
कोर्ट ने कहा —“यह रिश्ता वासना का नहीं, बल्कि प्रेम का था। कानून की कठोरता को अन्याय का कारण नहीं बनने देना चाहिए।”
मामला एक ऐसे कपल का है जो लंबे समय से रिलेशनशिप में था। युवती उस वक्त नाबालिग थी, और इसी आधार पर युवक पर पॉक्सो अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। निचली अदालत ने युवक को 10 साल की सजा सुनाई थी। समय के साथ दोनों ने शादी कर ली और उनका एक बच्चा भी है। युवती (अब पत्नी) ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह अपने पति और बच्चे के साथ “बहुत खुश” है।
भारत का संविधान अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह किसी भी मामले में “पूर्ण न्याय (Complete Justice)” के लिए आवश्यक आदेश पारित कर सके —
भले ही मौजूदा कानून कुछ और कहता हो। यानी, यह अदालत को यह शक्ति देता है कि वह मानवीय परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कानून से ऊपर जाकर फैसला दे सके।
फैसला सुनाते हुए जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने कहा —“हर मामला परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इस केस में कानून को न्याय के सामने झुकना होगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को चेतावनी देते हुए रिहा किया है। अदालत ने कहा कि आरोपी अपनी पत्नी और बच्चे का सम्मानपूर्वक भरण-पोषण करेगा, और अगर उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे परिणाम भुगतने होंगे।
यह पहला मौका नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का उपयोग पॉक्सो मामलों में किया हो। मई 2025 में भी कोर्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को राहत दी थी, जिसने नाबालिग प्रेमिका से शादी कर ली थी और अब पारिवारिक जीवन जी रहा था।
कानूनी विश्लेषक मानते हैं कि यह फैसला आने वाले समय में नज़ीर (precedent) बन सकता है। हालांकि वे चेताते हैं कि इसका उपयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए, ताकि पॉक्सो कानून की मूल भावना — नाबालिगों की सुरक्षा — कमजोर न पड़े।
यह फैसला दिखाता है कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ कानून की धाराओं का पालन नहीं करता, बल्कि यह भी देखता है कि कहीं कानून की कठोरता किसी के जीवन को अनुचित रूप से न तोड़ दे। “कभी-कभी न्याय पाने के लिए कानून को झुकना पड़ता है।”
