सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण का लाभ उन ‘महानुभावों’ के वारिसों को नहीं मिलना चाहिए जो 70 वर्षों से आरक्षण का लाभ उठाकर धनाढ्य की श्रेणी में आ चुके हैं। वर्षों से आरक्षण का लाभ सही मायने में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पाने पर कोर्ट ने कहा, सरकार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की सूची फिर से बनानी चाहिए। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा, ऐसा नहीं है आरक्षण पाने वाले वर्ग की जो सूची बनी है वह पवित्र है और उसे छेड़ा नहीं जा सकता। आरक्षण का सिद्धांत ही जरूरतमंदों को लाभ पहुंचाना है।

संविधान पीठ ने अपने एक आदेश में कहा, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग के भीतर ही आपस में संघर्ष है कि पात्रता के लिए योग्यता क्या होनी चाहिए। पीठ ने कहा, सरकार का दायित्व है कि सूची में बदलाव करे जैसा कि इंद्रा साहनी मामले में नौ सदस्यीय पीठ ने कहा था।

संविधान पीठ ने कहा, आरक्षित वर्ग के भीतर ही सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत लोग हैं। ऐसे में जरूरतमंद लोगों को सामाजिक मुख्यधारा में लाने की आवाज को लेकर संघर्ष चल रहा है, बावजूद इसके उन्हें आरक्षण का सही मायने में लाभ नहीं मिल पा रहा। इसे लेकर आवाजें उठ रही है।

कोर्ट ने यह सिफारिश आंध्र प्रदेश के अधिसूचित क्षेत्रों में शिक्षकों की भर्ती में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने के फैसले को असांविधानिक करार देने के फैसले में की है। पीठ ने कहा, वह वरिष्ठ वकील राजीव धवन की इस दलील से सहमत है कि आरक्षित वर्गों की सूची पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

पीठ ने कहा, आरक्षण प्रतिशत के साथ बिना छेड़छाड़ किए सूची में बदलाव किया जा सकता है, जिससे सही मायने में जरूरतमंदों को लाभ मिल सके न कि उनको जो सूची में शामिल होने के बाद से आरक्षण का लाभ उठा समाज की मुख्यधारा में आ चुके हैं।

पीठ ने कहा, ऐसा देखने को मिला है कि राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए आयोग की रिपोर्ट में सूची में बदलाव की सिफारिश की गई है। आयोग ने सूची में किसी जाति, समुदाय व श्रेणी को जोड़ने या हटाने की सिफारिश की है। जहां ऐसी रिपोर्ट उपलब्ध है वहां राज्य सरकार मुस्तैदी दिखाकर तार्किक तरीके से इसे अंजाम दे।

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