लखनऊ, उत्तर प्रदेश में वसंत पंचमी के दिन महाराजा सुहेलदेव की विरासत पर भी सियासी जंग तेज होती नजर आ रही है। सुहेलदेव जयंती पर सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा कि हजार साल बाद महाराजा सुहेलदेव को सम्मान मिला है। इसके लिए वह पीएम नरेंद्र मोदी के आभारी हैं। उनके स्मारक का शिलान्यास हुआ। उधर ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) पहले से उनकी विरासत पर दावा ठोकती आई है। अब उनके भागीदारी संकल्प मोर्चे में असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम भी शामिल है।

बहराइच का गाजी मियां का मशहूर मेला
सुहेलदेव का अतीत जानने से पहले गाजी मियां के मेले को जिक्र भी जरूरी है। नेपाल सीमा से लगा यूपी का बहराइच जिला हर साल मई में लगने वाले एक मेले के लिए मशहूर है। बहराइच में सैयद सालार मसूद गाजी और महाराजा सुहेलदेव दोनों की चर्चा होती है। 1034 ईसवी में मौत के बाद मसूद गाजी की कब्र बहराइच जिले में बनाई गई। यहां जल्द ही आस-पड़ोस से लोग पहुंचने लगे। वहीं 1250 में दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद ने इस कब्र पर मजार बनवा दी।

13वीं सदी में इब्न बतूता भी दरगाह पर आया
13वीं सदी में मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में अफ्रीकी यात्री इब्न बतूता भी यहां आया। लगातार लोगों के यहां मत्था टेकने से जल्द ही मजार की मान्यता दरगाह के रूप में हो गई। धीरे-धीरे यहां देश के कोने-कोने से लोग दस्तक देने लगे। हर साल मई में यहां उर्स मनाया जाता है और इस मेले में हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग पहुंचते रहे हैं। बाराबंकी की चर्चित दरगाह देवा शरीफ से गाजी मियां की बारात आने के साथ इस मेले का आगाज होता है। जिस दिन यह बारात बहराइच में दरगाह पर आती है, ठीक उसी दिन हिंदूवादी संगठन महाराजा सुहेलदेव विजयोत्सव मनाते हैं।

सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के समय में बनी मजार
बहराइच से सटे बलरामपुर के एमएलके पीजी कॉलेज के इतिहास विभाग के असोसिएट प्रोफेसर तबस्सुम फरखी ने बताया, ‘1246 से 1266 तक नसीरुद्दीन महमूद दिल्ली सल्तनत का सुल्तान था। उसी ने यहां पर मजार बनवाई थी। इसके बाद दिल्ली के सुल्तान यहां आने लगे। बंगाल का सुल्तान यहां बिना इजाजत के आया। इस पर दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने ऐतराज जताया। हालांकि बाद में फिरोज शाह तुगलक भी वहां गया। कहते हैं कि यहां से लौटने के बाद वह कट्टर हो गया था।’

17वीं सदी में मिरात-ए-मसूदी में जिक्र, सबूत नहीं मिले
प्रोफेसर फरखी आगे बताते हैं, ‘चिश्तिया संप्रदाय से आने वाले अब्दुर रहमान रशीदी ने फारसी में मिरात-ए-मसूदी 17वीं सदी में लिखी थी। उस किताब में उन्होंने लिखा कि सालार मसूद महमूद गजनवी का भांजा था। हालांकि इसका सबूत कहीं नहीं मिला। रशीदी ने अपनी किताब में सैयद सालार को महिमामंडित किया। उन्होंने मसूद गाजी को चिश्तिया सिलसिले से जोड़ दिया। इस किताब से पता चलता है कि गाजी का जन्म 1014 में अजमेर में हुआ। उनके पिता का नाम सालार साहू था। बाराबंकी के पास सतरिख में सालार साहू की मृत्यु हुई। यहां भी एक मजार है। वहीं अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में लिखा कि मसूद गाजी महमूद गजनवी का भांजा था। ऐसी भी चर्चा होती है कि मुगल बादशाह अकबर भी भेष बदलकर एक बार मसूद गाजी की दरगाह पर गए थे।’

‘मसूद गाजी का सूफी परंपरा से प्रभावित होकर महिमामंडन’
दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रफेसर और इतिहासकार शाहिद अमीन ने एक किताब लिखी है- Conquest and Community: The Afterlife of Warrior Saint Ghazi Miyan। इसमें वॉरियर सेंट के रूप में सैयद सालार मसूद गाजी का जिक्र है। अपनी किताब में वह रहमान रशीदी के दावे को ऐतिहासिक दस्तावेज की जगह सूफी परंपरा से प्रभावित होकर निकली इबारत मानते हैं। मिरात-ए-मसूदी में सालार मसूद की जिस मां (गजनवी की बहन) का जिक्र है, वैसा किसी ऐतिहासिक दस्तावेज में नहीं मिलता है। यहीं नहीं ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक गजनवी की फौज में गाजी मसूद के पिता सालार साहू नाम के किसी सिपहसालार का जिक्र नहीं मिलता है।

‘सुहेलदेव के राजभर राजा होने में सच्चाई संभव’
प्रयागराज के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर बद्री नारायण तिवारी ने Fascinating Hindutva: Saffron Politics and Dalit Mobilisation नाम से एक किताब लिखी है। इसमें उन्होंने पासी और राजभर समुदाय की सुहेलदेव की विरासत से खुद को जोड़ने का जिक्र किया है। बद्री नारायण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उस दौर में पासी या राजभर राजा होते थे, क्योंकि अपनी शक्ति और संगठन के बल वे राज स्थापित करने में कामयाब हो जाते थे। लिहाजा राजा सुहेलदेव के संदर्भ में इस धारणा को खारिज नहीं किया जा सकता। उनका राज्य भी कोई बहुत विशाल इलाके में नहीं था। कई लेखक सुहेलदेव की जाति को लेकर भर, भर राजपूत, नागवंशी क्षत्रिय और विसेन क्षत्रिय के रूप में भी दावा करते रहे हैं।

हिंदूवादी संगठनों का यह दावा
हिंदूवादी संगठनों का दावा है कि जिस जगह पर मसूद गाजी की दरगाह है, वहां पर उस दौर में बालार्क ऋषि का आश्रम हुआ करता था। उनको राजा सुहेलदेव का गुरु बताया जाता है। एक दक्षिणपंथ से प्रभावित रिसर्च पेपर (The Forgotten Battle of Bahraich) में दावा किया गया है कि सुहेलदेव ने या तो मसूद का सिर काट दिया या फिर उनके गले में तीर मारा था। इस रिसर्च के मुताबिक मसूद की मौत सूर्यकुंड झील के पास महुए के पेड़ के नीचे हुई। हालांकि ऐसा तथ्य कहीं और नहीं मिला।

21 पासी राजाओं की बहराइच की लड़ाई में जीत?
रिसर्च पेपर के मुताबिक बहराइच की लड़ाई में सुहेलदेव ने 21 पासी राजाओं का गठबंधन बनाकर सैयद सालार मसूद गाजी को युद्ध में शिकस्त दी। इन राजाओं में बहराइच, श्रावस्ती के साथ ही लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ और बाराबंकी के राजा भी शामिल थे। हिंदू संगठनों के दावे के मुताबिक 1033 ईसवी में मसूद गाजी और सुहेलदेव की सेनाओं में भीषण जंग हुई। इस युद्ध में मसूद मरणासन्न अवस्था में पहुंच गया और बाद में उसकी मौत हो गई। उसके साथियों ने बहराइच में मसूद की बताई जगह पर ही उसे दफना दिया। बाद में वहां मजार बनी और दिल्ली के सुल्तानों के दौर में दरगाह के रूप में मशहूर होती चली गई।

राजभर वोट पूर्वांचल में क्यों अहम
पूर्वांचल में राजभर वोट काफी अहम माना जाता है। दर्जनों सीटों पर हार-जीत में ये बड़ा फैक्टर है। अनुमान है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय की आबादी तकरीबन 18 प्रतिशत है। वहीं पूरे सूबे में तकरीबन ढाई फीसदी राजभर वोट हैं। पूर्वांचल के गाजीपुर, वाराणसी, आजमगढ़, मऊ और बलिया से लेकर अवध के बहराइच-श्रावस्ती तक राजभर वोट सियासी बिसात पर बड़ी लकीर खींचने की ताकत रखते हैं। 15 जिलों की 60 सीटों पर समुदाय का अच्छा खासा असर है। वही राजभर यूपी की उन 17 अति पिछड़ी जातियों में से हैं, जो लंबे अरसे से अनुसूचित जाति का दर्जा मांगते आ रहे हैं।

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